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दिसंबर के पहले हफ्ते में चार दिनों की छुट्टी लेकर घर गया हुआ था। घर यानी, लखनऊ से कुछ दूर स्थित उत्तर प्रदेश का एक जिला, नाम लिखने की जरूरत नहीं। यूपी के ज्यादातर जिले एक जैसे ही हैं, कोमा ग्रस्त।


पांच तारीख को वापस लौटा, दफ्तर आया, यह ब्लॉग लिखने की तैयारी करता रहा। लेकिन समय नहीं मिल पाया। फिर वायरल फीवर ने दबोच लिया। जबर्दस्त जुकाम, तेज बुखार और भयंकर दर्द ने शरीर के एक-एक कल-पुर्जे को हिला डाला। चार दिन बिस्तर से उठने को तरस गया। सोच रहा था ऐसे ही बुखार ने तो मेरे प्रदेश को जकड़ रखा है।


इस साल फरवरी में दक्षिण भारत जाना हुआ था। कन्याकुमारी से मदुरै जाने के लिए तमिलनाडु स्टेट ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन की बस पकड़ी। अपने निर्धारित समय दस बजे बस चल पड़ी। एक मिनट की भी देरी नहीं। 2X2 नॉन एसी बस में करीब 250 किलोमीटर के इस सफर का किराया था सिर्फ 100 रुपये। बस में लोगों के पीने के लिए पानी का भी इंतजाम था। 20 लीटर आरओ वॉटर के दो जार, डिस्पेंसर समेत रखे हुए थे। पांच घंटे में हम मदुरै पहुंच गए। रास्ते में बस सिर्फ एक जगह रुकी। सरकारी ढाबा कह सकते हैं। बेहद साफ-सुथरा जैसे कि कोई अभिजात्य रेस्त्रां और खाने-पीने की चीजों के दाम, बस उतने जितने होने चाहिए।


वापस उत्तर प्रदेश आता हूं। लखनऊ से हमारा शहर करीब 120 किलोमीटर की दूरी पर है। साधारण बस का किराया है 86 रुपये। हड्डीचटकउआ सड़कों पर इस सफर में आम तौर पर 4-5 घंटे या कभी-कभी इससे ज्यादा समय लग जाता है। माया सरकार ने रोडवेज बसों पर लिखवा दिया है सर्वजन हिताय। बसों के जरिए सबका हित कैसे सध रहा है, मेरी समझ में नहीं आया। सुन रहा हूं फिर सैकड़ों करोड़ का बजट मिला है, सड़क बनाने के लिए। कई जगह काम भी चल रहा है। अच्छी बात है भी और नहीं भी। नई बनी सड़क (एक हफ्ते पहले बनी) पर छोटे-छोटे गड्ढे दिखने लगे हैं। तारकोल डालने में ऐसी कंजूसी मानो तारकोल न हो देशी घी हो।


ट्रेन से सफर करते हुए मैंने एक और बात पर गौर किया। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र में किसी भी स्टेशन पर ट्रेन रुकती है तो वहां आपको चाय, कॉफी, जूस के साथ गर्म दूध जरूर मिल जाएगा। यूपी, बिहार से गुजरते समय आप बड़े से बड़े स्टेशन पर उतर के देख लीजिए। बच्चे को पिलाने के लिए दूध नहीं मिलेगा। चाय मिलेगी, सिंथेटिक दूध वाली। खून में ही बेईमानी घुल गई हो तो ऐसा ही होगा न। बेईमानी से याद आया, राज्य में ईमानदारी भी दिखती है। मुख्यमंत्री के जन्मदिन के लिए अफसर और व्यापारी ईमानदारी से चंदा देते हैं। चंदा देने में जरा सा ईमान डोला नहीं कि इटावा के इंजीनियर की तरह जान भी चली जाती है।


शहर में फिर चुनाव की धूम मची है। एमएलसी का चुनाव। जैसे देश में लोकसभा और राज्यसभा वैसे ही यूपी में विधानसभा और विधानपरिषद। यह भी मेरे कभी पल्ले नहीं पड़ा कि विधानसभा के साथ-साथ विधानपरिषद की क्या जरूरत है? ज्यादातर राज्यों में तो नहीं है फिर भी वे यूपी से ज्यादा तरक्की कर रहे हैं। एमएलसी का चुनाव सीधे जनता से नहीं होता बल्कि जनप्रतिनिधियों के जरिए होता है इसलिए आम चुनाव की तरह प्रचार-वचार की जरूरत नहीं होती। बहरहाल, लोगों से चुनाव की चर्चा चल रही थी। एक भाई साहब ने बताया, 'भैया, जिसके टेटे (जेब समझ लें) से कम से कम एक करोड़ निकलेगा, वही जीतेगा। आम चुनाव तो है नहीं कि प्रचारबाजी में पैसे खर्च हों। सीधे सदस्यों को पैसे बांटे जाएंगे, जो ज्यादा मोटी गड्डी देगा, उसको वोट मिलेगा।' मैं उनकी बात का मर्म समझ गया।


जब हम छोटे थे तो सुबह पांच बजे ही नल खखारने लगता था। उसमें से पानी की ऐसी मोटी धार निकलती थी कि लगता था मिनी-ट्यूबवेल चल रहा हो। दस बजे तक पानी आता था। फिर दोपहर 12 से 1 बजे तक। फिर शाम को चार बजे से रात 9 बजे तक। तराई इलाके का शहर, पानी ही पानी। अब पानी दो-दो दिन तक नहीं आता। मोटर के बिना तो कभी नहीं। बिजली का भी वही हाल। ज्यादातर तो आती नहीं। आती है तो वोल्टेज इतना कम कि सॉकेट में उंगली दे दो तो भी झटका न लगे! इतना विकास हो गया माया-मुलायम के सौजन्य से...


छोटे शहरों की छोड़िए, दिल्ली से सटे गाजियाबाद को देख लीजिए। इंफ्रास्ट्रक्चर का जो काम दस-पंद्रह साल पहले पूरा हो जाना चाहिए था, वह आज हो रहा है। खरामा-खरामा शहर के बीचोबीच एक नया फ्लाईओवर बना है। सरकारी परियोजना - दो साल का काम चार में पूरा हुआ। बजट करोड़ों रुपये बढ़ गया। फ्लाईओवर बन के तैयार हुआ तो पता चला कि यह तो संकरा है। पहले ही दिन से गाड़ियां लड़ने-भिड़ने लगीं। अब फ्लाईओवर सुबह खुलता है, शाम को बंद कर दिया जाता है ताकि कोई दुर्घटना न हो। दुर्घटना तो हो गई वह भी इतनी भीषण। सीमेंट, सरिया, कंक्रीट में जनता के करोड़ों रुपये गल गए। पांच-आठ साल इलाहाबाद, दिल्ली में हल्दीघाटी और पानीपत की लड़ाई की तारीखें याद करने के बाद अफसर बने बाबू साहब लोगों की जेब से क्या गया? इंजीनियर, ठेकेदार की दमड़ी भी नहीं लगी। वाट तो जनता की लगी।


ले देकर पूरे उत्तर प्रदेश में नोएडा ही एक ऐसा शहर है जहां विकास नाम की चिड़िया दिखती है। यह भी सरकारी योजनाओं की वजह से नहीं बल्कि दिल्ली से करीबी की वजह से है। एनसीआर के शहरों में नोएडा दिल्ली से सबसे नजदीक है। फिर भी कॉर्परट सेक्टर रिझाने के मामले में गुड़गांव काफी आगे निकल चुका है। नोएडा के मुकाबले खराब इंफ्रास्ट्रक्चर के बावजूद सैकड़ों कंपनियां गुड़गांव में कामकाज करना ज्यादा पसंद कर रही हैं। प्रदेश की राजधानी लखनऊ की चमक-दमक भी नेताओं और नौकरशाहों की काली कमाई की वजह से ही है। बाकी बड़े शहरों का तो कोई नामलेवा भी नहीं है। अब मायावती राज्य के चार टुकड़े करने की वकालत कर रही हैं। सचाई यह है कि उत्तर प्रदेश के चार टुकड़े हों या चार सौ बीस, हालात कमोवेश ऐसे ही रहने हैं  ।
कहते हैं शिक्षा के मामले में बड़ी तरक्की हुई। हमने भी अपनी आंखों से देखी। लाखों लोग प्राइमरी टीचर, शिक्षा मित्र वगैरह बन गए हैं। अच्छी तनख्वाह मिलती है। रोज जाने की जरूरत नहीं। बीच-बीच में सख्ती होती है तो स्कूल चले जाते हैं। गांव-देहातों के स्कूलों में ज्यादातर मास्टर पहले भी पढ़ाने-लिखाने से परहेज करते थे, अब भी। नतीजा यह कि गांव-देहात के ज्यादातर बच्चों के लिए 'करिया अच्छर' अब भी भैंस बराबर है। लेकिन प्राइवेट स्कूल खूब पनप रहे हैं। पूरे पर दस्तखत कराकर आधी तनख्वाह वहां अब भी दी जाती है। फिर भी बच्चे पढ़-लिख रहे हैं। आगे बढ़ रहे हैं। कल को अपने राज्य में आगे बढ़ने के लिए जगह नहीं बचेगी। तब दिल्ली, गुड़गांव, मुंबई, हैदराबाद, बेंगलुरु, चेन्नै का रुख करेंगे। कमाएंगे-खाएंगे, घर बनाएंगे, लेकिन यूपी वापस नहीं आएंगे। जीतेजी नरक में कौन जाना चाहेगा भला...


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