धरा गज,फुट में बिकती है उजडते गांव तो दखो
नारी, नर के आपस में रगडते पांव तो देखो
भारत मां की छाती में ये सढते घाव तो देखो
लुटती हैं सियासत में किसानों की जमीने भी
कमाते हैं दलालों से ये सत्ता के कमीने भी
मॅंडराती हैं क्यों चीलें पुस्तैनी धरोहर में
यहाॅं खेतों से चित्कारें उगलती हैं सभी घर में
ये मुर्दे भी ,शरीरों से कफन को खींच लाते हैं
यहाॅं सत्ता , विरोधी भी , सियासी गीत गाते हैं
ये नाटक रोज चलता है वजीरों में दलालों में
सियारों को छिपे देखो यहाॅं शेरों की खालों में
जहाॅं राजस्व की भूमि ,कब्जा है रियासत का
जमीने भी बदलती हैं ये जज्बा है सियासत का
मंत्री के इशारों से यहाॅं राजस्व चलता है
कमीनों के करारों से ये कारोबार फलता है
कहीं दाखिल कहीं खारिज होता हैं विरक्तों का
कॅंहा दिखता है घोटाला यहाॅं पर ताजतख्तों का
यहाॅं तो धन कुबेरों की ही लीजें रोज कटती हैं
विरक्तोंऔर कमीनो से धरती क्यों सिमटती है
कंही अव्वल ,कंही दोयम, ये पटवारी बताता है
यंहा गुमनाम खातों में नेता जी का खाता है
नौकर-शाहों के खातों में बी0 बी0 दर्ज होती है
सियासत में रियासत में ये टी0वी0मर्ज होती है
बिना घरबार के डीलर जमीनो को दिखाते हैं
सारा माल चौराहो के ,ये दफ्तर ही खाते हैं
पूरे देश के खसरे, खतौनी इनके हाथो में
फाइल भी खिसकती है दलालो की ही बातो में
दो परसेन्ट के धन्धे मे लाखो वारे - न्यारे हैं
दल्लों और पुछल्लों के हूकूमत मे नजारे हैं
सत्ता भी जमीनो और कमीनो से ही चलती है
नेता की गृहस्थी भी कमीनो से ही पलती है
यहाॅं भूमिधरी काबिज के हाथों में ही जाती है
कमीनों को तो कब्जे की जमीने रास आती हैं
कफन,खादी के कुर्तोे सेअमनऔर चैन खोता है
ये कैसी राष्ट्र - भक्ति है ,जो हिन्दुस्तान रोता है
गृहस्ती का खुले आकाश के नीचे ठिकाना है
महलों में विरक्तों का ये कैसा आशियाना है
अब तो नारियो में भी दिगम्बर का जमाना है
यहाॅ शहरो में अय्यासी का,ये नक्कार खाना है
लेकर आड. धर्मो की अधर्मी घूमते देखो
चरित बिकता है चौराहे में नंगे झूमते देखो
भरे बाजार में नारी , लफंगे चूमते देखो
कमीने राज नेता की जरा हूकूमते देखो
कंही खूनी, कंही कतली, भरे खद्दर लिबाशों में
वतन जीता है बूढे राज नेताओं के झांसो में
शकुनि ही छिपा बैठा है हर चैपड़ के पासों में
वतन की आबरु अब भी पढी है मुर्दा लाशों में
जमीनो को कमीनो से क्या अन्ना बचायेगा
क्या संसद से जमीनो का नया कानून आयेगा
सभी दहशत में हैं डाकू , अन्ना की अदाओं से
कविता आग लिखता है, इस धरती की गांवो से।।
राजेन्द्र प्रसाद बहुगुणा