भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत समर्थक

भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जंग में जॉर्जिया के बरक्स भारत!

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आम बातचीत में अकसर कहा जाता है कि भ्रष्टाचार भारतीय समाज और व्यवस्था में इतना रच-बस चुका है कि इसे खत्म करना संभव ही नहीं है. ऐसे में जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी के इस हालिया बयान से बहुत से लोग असहमत हो सकते हैं कि ‘देश में कैबिनेट के पांच मंत्री भी ईमानदार हो जायें तो भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा.’ लेकिन पिछले दिनों जारी विश्व बैंक की एक रिपोर्ट भी यही बताती है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठा एक व्यक्ति भी यदि कारगर रणनीति के साथ भ्रष्टाचार मिटाने की इच्छाशक्ति दिखाये, तो बड़ी कामयाबी हासिल की जा सकती है.

जॉर्जिया के राष्ट्रपति मिखाइल साकशविली भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जंग के एक ऐसे ही नायक बनकर उभरे हैं. रिपोर्ट जारी करते हुए विश्व बैंक के यूरोप और मध्य एशि‍या के वाइस प्रेसीडेंट फ़िलिप ले होरो ने कहा, ‘अलग-अलग देशों की स्थानीय, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिस्थितियां चाहे जितनी अलग हों, भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जॉर्जिया की कामयाबी से वे काफ़ी सबक सीख सकते हैं.’ विश्व बैंक ने व्यापार करने योग्य देशों की सालाना सूची में 2012 में जॉर्जिया को 16वें स्थान पर रखा है, जबकि 2005 में वह 112वें स्थान पर था.

उधर, सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार के विभिन्न पैमानों पर हर साल भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक ( करप्शन परसेप्शन इंडेक्स ) जारी करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ की रिपोर्ट भी बताती है कि भ्रष्टाचार कम करने वाले देशों में जॉर्जिया पहले स्थान पर है. भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक 2003 में जॉर्जिया को 10 में से मात्र 1.8 अंक दिये गये थे और यह 124वें स्थान पर था. आठ वर्ष बाद भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक 2011 में 183 देशों की सूची में जॉर्जिया 4.1 अंक पाकर दक्षिण अफ्रीका के साथ 64वें स्थान पर है. उल्लेखनीय है कि 2011 के सूचकांक में भारत 3.1 अंकों के साथ 95वें स्थान पर है.

1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अलग देश बने जॉर्जिया में एक दशक बीतते-बीतते भ्रष्टाचार चरम सीमा पर पहुंच गया. 2001 में मिखाइल साकशविली ने स्थानीय सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ़ न्याय मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया. 2003 के विवादित संसदीय चुनावों के बाद उन्होंने देशव्यापी प्रदर्शनों का नेतृत्व किया, जिसे दुनिया ‘ रोज रिवोल्यूशन’ के नाम से जानती है. इस क्रांति के परिणामस्वरूप 23 नवंबर 2003 को तत्कालीन राष्ट्रपति एडुअर्ड सेवार्दनेज को इस्तीफ़ा देना पड़ा. क्रांति की कामयाबी के साथ साकशविली लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गये और 2004 के राष्ट्रपति चुनाव में उन्हें 90 फ़ीसदी से अधिक मत मिले.

रिपोर्ट के मुताबिक भ्रष्टाचार उन दिनों जॉर्जियाई जीवन के लगभग हर पहलू को डंस रहा था. साकशविली ने सत्ता संभालते ही लोकतांत्रिक सुधारों के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ़ एक ‘ तूफ़ानी अभियान’ की शुरुआत कर दी. इसमें सहयोग के लिए उन्होंने उच्च पदों पर कुछ युवा अधिकारियों की नियुक्ति की, जिनमें ज्यादातर ने पश्चिमी देशों में शिक्षा हासिल की थी. अभियान शुरू हुआ तो एक रात में ही 16 हजार ट्रैफ़िक पुलिसकर्मियों को चलता कर दिया गया और उनकी जगह एक माह के अंदर 2300 नये लोगों की नियुक्ति कर दी गयी. एक दिन में ही सार्वजनिक रजिस्ट्री से जुड़े सभी 2200 कर्मचारियों को निलंबन का नोटिस थमा दिया गया. विश्वविद्यालयों में पैसे लेकर प्रवेश बंद करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त प्रवेश परीक्षा शुरू की गयी.


छापामार अभियानों का तूफ़ान थमने के बाद सरकार ने भ्रष्टाचारियों से उनकी काली कमाई का बड़ा हिस्सा हासिल कर उन्हें रिहा करना शुरू कर दिया. एक धनकुबेर ने सर्वाधिक 1.4 करोड़ डॉलर में अपनी रिहाई खरीदी. इस तरह सरकारी खजाने का आकार काफ़ी बढ़ गया. साकशविली का तर्क साफ़ था, ‘भ्रष्ट अधिकारियों और कारोबारियों की संख्या इतनी ज्यादा थी कि उन्हें जेलों में रख कर उन पर मोटी राशि खर्च करने की जगह हमने उनकी काली कमाई का अधिकतम हिस्सा हासिल कर उन्हें रिहा कर दिया.’ हालांकि सुधार की काफ़ी गुंजाइश अब भी है, खासकर संस्थागत सुधार की. लेकिन आज जॉर्जिया की स्थिति काफ़ी बदल गयी है.


लेकिन जॉर्जिया के बरक्स भारत को देखें तो एक निराशाजनक तसवीर उभरती है. संयोग से भारत में भी मनमोहन सिंह 2004 से ही लगातार सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हैं. उनके सत्ता संभालने से पहले, यानी 2003 में भ्रष्टाचार धारणा इंडेक्स में भारत 83वें स्थान पर था. पिछले आठ वर्षो में जॉर्जिया जहां इसमें 60 पायदान ऊपर चढ़ा है, भारत 12 पायदान नीचे फ़िसला है. देश में आज भ्रष्टाचार से जंग के नायक के रूप में अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे नाम आम लोगों की जुबान पर हैं, लेकिन सत्ता पक्ष में ऐसा कोई नायक नहीं दिखता. सुब्रह्मण्यम स्वामी कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मैं व्यक्तिगत रूप में जानता हूं, वह ईमानदार हैं, लेकिन उनमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है.’

हालांकि इस निराशाजनक तसवीर के बावजूद उम्मीद अभी कायम है. भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए एक मजबूत लोकपाल की मांग के साथ लोग जिस तरह से उद्वेलित हैं, वह भविष्य में बदलाव की इबारत लिख सकता है.
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